
प्रशासन की तानाशाही या जनविरोध की अनदेखी? आदिवासी आवाज़ फिर दबाने की कोशिश, सांसद की खामोशी पर सवाल।
घरघोड़ा। आदिवासियों की ज़मीन पर जबरन कंपनी का कब्जा शासन-प्रशासन की मिलीभगत और सांसद की चुप्पी आज इस बात की गवाही दे रही है। कि आदिवासियों की ज़िंदगी और ज़मीन, सत्ता के सौदागरों के लिए बस एक सौदा भर है।
ब्लैक डायमंड कंपनी द्वारा आदिवासी बहुल ग्राम डोकरबुड़ा, राबो, गतगांव और हर्राडीह की ज़मीन पर कब्जा करने की कोशिशों के खिलाफ लंबे समय से ग्रामीणों का विरोध जारी है। इसके बावजूद प्रशासन ने जंगल की ज़मीन का डायवर्सन करके यह जता दिया कि उसे न तो संवैधानिक अधिकारों की परवाह है, न ही जनभावनाओं की। आज जब कंपनी भूमि पूजन कर काम शुरू करने वाली थी, तब गांव की महिलाओं, युवाओं और बुजुर्गों ने एकजुट होकर विरोध दर्ज कराया, और इसी जनआक्रोश के चलते कंपनी को कार्यक्रम रद्द कर बैरंग लौटना पड़ा। यह सिर्फ विरोध नहीं, सत्ता के अत्याचार के खिलाफ जनसंघर्ष का ऐलान है।
गंभीर सवाल यह है कि यह सब कुछ रायगढ़ लोकसभा क्षेत्र में हो रहा है, जहां से सांसद राधेश्याम राठिया निर्वाचित हैं। मगर उनके सांसद के गृहग्राम करीब जब आदिवासियों की ज़मीन पर हमला हो रहा है, तब सांसद की चुप्पी सवालों के घेरे में है। क्या यह चुप्पी मौन समर्थन नहीं है?
जनप्रतिनिधियों का यह रवैया साबित करता है कि वे अब जनसेवक नहीं, कॉर्पोरेट एजेंट बन बैठे हैं। आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा करने की बजाय उनके विरोध को नजरअंदाज किया जा रहा है। यह समय है जब जनता को यह समझना होगा कि संविधान में दिए गए हक सिर्फ कागज़ पर हैं और ज़मीन पर सत्ता के हाथों कुचले जा रहे हैं। अगर अब भी लोग नहीं जागे, तो अगली पीढ़ी को विरासत में सिर्फ खनन गड्ढे और उजड़े जंगल ही मिलेंगे। ग्रामीण आदिवासियों का कहना है कि यह विरोध एक जंग है हक, अस्तित्व और आत्मसम्मान की।
